यह मत सोचिएगा, किताब इतनी कम क्यों लिखी गई? इतनी भी लिखने का कोई प्रयोजन न था। असल में बात "समझ" में आ जाए तो लिखने और कहने का भी कोई अर्थ नहीं हैं, परंतु आज बात जरा उल्टी हैं।
बात यह नहीं हैं की इस किताब के कुछ चंद शब्दों से कुछ बदलाव होगा, अपितु बदलाव की नहीं मनुष्य को प्रकृति के प्रति "समझ" की आवश्यकता हैं। "समझ" ना आए तो बार-बार पढ़ो, यदि आ जाए तो अभिनंदन, आप "मनुष्य" बन गए। ना आए तो और एक बार पढ़ो। इतनी सी बात हैं, "प्रकृति के समझ" की जो हैं समझानी।